मेरे “दूर के बाप”…


आज फिर कई महीनों बाद,
फल, मिठाई और मेरी “सगी माँ” के साथ,
मुझसे मिलने पहुंचे,
मेरे “दूर के बाप” !

कंधों पे चढ़ी, गोद में जिसके खेली मैं,
जानें कब बदल गये,
उनके वो जज़्बात !
इक उम्र आते ही,
स्त्री हो गयी मैं,
और मर्द हो गये,
मेरे “दूर के बाप” !

नाती को सर पर बैठाया,
दामाद और टीवी-रिमोट संग,
पूरी दुनिया घुमवाया !
मौके पर, नींद के झोकें में,
कितनी ही पलकें झपकाया,
और मुझे, बस “कैसी हो”,
कह निपटाया !
ये कैसा रिश्ता, ये कैसा श्राप,
ओ मेरे “दूर के बाप” !

लाड़ प्यार कहकहों का, था हमारा संसार,
फिर क्यों इतनी खामोशी भर दी,
इस बेगानी शादी के बाद !
कि क्यों अब सिर्फ आंखों से ही,
पूछते हो मेरा हाल,
फिर से लगा लो न गले,
ओ मेरे “दूर के बाप” !

इसबार आए हो,
तो थोड़ा ठहर के जाना,
सिर्फ “मेरे उनसे” ही न बतियाना !
तोड़ देना वो कड़क छवि का झूठ,
और जाना औपचारिकताओं को भूल,
फिर से “मेरे पापा”, बन जाना आप,
प्यारे, मेरे “दूर के बाप” !

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