सरयू में विलीन हो चुके, तुलसी और वाल्मीकि के राम,
लाखों करोड़ो का दिल रखने के लिए, फिर एक बार,
हर छल-कपट, साम-दाम दंड-भेद के बाद,
अयोध्या पधारेंगे, कलयुग में, जय श्री राम ।
पर सीता, न आएंगी, उस नगरी, उस द्वार,
जहाँ के धोबी ने किया था, उनका दुष्प्रचार,
जहां मर्यादा हो चुकी लथपथ,
बिसरा दिए गए हों, शबरी अहिल्या के राम,
जहाँ गुमशुदा हो, जनकीय संवाद,
और चहु ओर हो, बस एका-धुन अनुनाद !
सीता बोलीं, ऐसे महलों-मंदिर में, मेरा क्या काम
जहाँ पूजे जाते हो, बस “पत्थर के राम” ।
जिनकी नींवों में, चुने गयें हों, लाशों का अम्बार,
जिनके गलियारों में गूंजे, दर्द-भारी चीत्कार,
जिस सिंघासन के पायों में, दबे हो संस्कार,
सुनहरी चमक धमक से हो, चुंधियाता अंधकार,
सीता बोलीं, ऐसे महलों-मंदिर में, मेरा क्या काम,
जहाँ “मेरे राम” न हों, हो बस “राम के नाम” ।
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